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जंतर-मंतर का असर

पूरे देश के किसी भी प्रदेश, किसी भी शहर के किसी भी स्वनामधन्य संगठन को जब यह लगता है कि उसे अपने आंदोलन को राष्ट्रीय स्वरूप देना है, तो उसका नारा होता है- दिल्ली चलो। दिल्ली के नक्शे में इस...

जंतर-मंतर का असर
हिन्दुस्तानSat, 13 May 2017 12:24 AM
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पूरे देश के किसी भी प्रदेश, किसी भी शहर के किसी भी स्वनामधन्य संगठन को जब यह लगता है कि उसे अपने आंदोलन को राष्ट्रीय स्वरूप देना है, तो उसका नारा होता है- दिल्ली चलो। दिल्ली के नक्शे में इस ‘दिल्ली चलो’ का अर्थ होता है, जंतर-मंतर चलो। देश भर के आंदोलनकारी अपने झंडे, बैनर, प्लेकार्ड उठाकर दिल्ली की ओर जाने वाली गाड़ियों में बैठ जाते हैं। सबसे पहले वे लाल किले के पीछे वाले मैदान में पहंुचते हैं, जहां से वे जुलूस की शक्ल में आगे बढ़ते हैं और उनकी अगली मंजिल होती है- जंतर-मंतर। उनके जंतर-मंतर आने का अर्थ होता है, दिल्ली के दरबार में दस्तक दे देना। 18वीं सदी की राजा जय सिंह द्वारा बनवाई गई इस वेधशाला के पीछे का मैदान दरअसल हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का वह जहांगीरी घंटा है, जहां हर रोज हजारों लोग अपनी दरख्वास्त लेकर पहंुचते हैं। तरह-तरह के असंतुष्ट लोग, रुष्ट लोग, वे लोग जिन्हें न्याय की आस है, वे लोग जिनके साथ अन्याय का एहसास है, वे लोग जो व्यवस्था को सुधारना चाहते हैं, वे लोग जो व्यवस्था को बदलना चाहते हैं, वे लोग जो इसे उखाड़ फेंकना चाहते हैं, सब अपनी वेदना के अंतिम दौर में राजधानी के इस धरना-प्रदर्शन स्थल पर पहुंचते हैं। इसलिए जंतर-मंतर हमेशा राष्ट्रीय सुर्खियों में भी रहता है। कभी निर्भया से हुए बर्बर बलात्कार का विरोध करने वाले युवा वहां पहंुच जाते हैं, तो कभी अन्ना हजारे के साथ भ्रष्टाचार के विरोध में अनशन करने वाले अरविंद केजरीवाल वहां जम जाते हैं। सभी तरह के विरोध करने वालों को अपना विरोध व्यक्त करने की जगह देने का प्रावधान दुनिया के लगभग सभी लोकतांत्रिक देशों में होता है। इस तरह के धरने, विरोध और प्रदर्शन भले ही स्थानीय प्रशासन के लिए सिरदर्द होते हों, लेकिन अंतत: वे लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत ही करते हैं। पूरे देश की उम्मीदें राजधानी के एक मैदान से जुड़ जाएं, यह राजधानी के लिए भी एक गौरव की बात होती है।

लेकिन राजधानी सिर्फ राजधानी नहीं होती, यह एक शहर भी होती है, बड़ी और घनी आबादी वाला शहर। नई दिल्ली के जिस इलाके में जंतर-मंतर है, उसके आस-पास केंद्र सरकार के कई मुख्यालय व कार्यालय हैं, कई निजी प्रतिष्ठानों के बड़े-बड़े दफ्तर भी यहां स्थित हैं, कनॉट प्लेस जैसे पुराने और राष्ट्रीय प्रतिष्ठा वाले बाजार भी यहीं हैं, इनमें काम करने वाले और इनसे जुड़े हुए लाखों लोग रोजाना इस क्षेत्र में आते-जाते हैं। धरने-प्रदर्शन उनके इस दैनिक जीवन में बाधा बनते हैं। जुलूसों की वजह से जाम लगते हैं, तो कई बार लोग समय से दफ्तर नहीं पहंुच पाते। इन तमाम कारणों से प्रदर्शन स्थल को कहीं और ले जाने की मांग भी उठती रही है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल भी कह रहा है कि इससे ध्वनि प्रदूषण होता है, इसलिए यह प्रदर्शन स्थल हटना चाहिए। इन दिनों मामला हाईकोर्ट में भी चल रहा है।

वैसे राजधानी का प्रदर्शन स्थल हमेशा से जंतर-मंतर नहीं था। कभी इस काम के लिए बोट क्लब का इस्तेमाल होता था। बोट क्लब राष्ट्रपति भवन और संसद भवन के बिल्कुल पास है, जिससे आंदोलनकारियों को यह मनोवैज्ञानिक एहसास होता था कि उन्होंने अपनी बात सीधे दिल्ली दरबार तक पहुंचा दी है। लेकिन बाद में सुरक्षा कारणों से उसे बदल दिया गया। जंतर-मंतर भले ही उतना पास न हो, लेकिन उस लिहाज से बहुत दूर भी नहीं है। इतना नजदीक नया प्रदर्शन स्थल खोजना शायद असंभव ही है। नया प्रदर्शन स्थल अगर दूर हुआ, तो जंतर-मंतर का आंदोलनकारियों पर जो प्रतीकात्मक असर होता था, वह खत्म हो जाएगा। लोकतंत्र के सामाजिक मनोविज्ञान में ऐसे प्रतीक बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। 

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