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सवाल भरोसे का

आज दो मरीज नहीं आए। उनके फैमिली डॉक्टर को फोन किया, तो पता लगा कि मरीज एक हफ्ते के लिए मछली मारने गए हैं। यहां (नॉर्वे में) और कई देशों में आपका लेखा-जोखा फैमिली डॉक्टर ही रखते हैं। भारत में भी यही...

सवाल भरोसे का
प्रवीण झा की फेसबुक वॉल सेThu, 13 Jul 2017 09:40 PM
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आज दो मरीज नहीं आए। उनके फैमिली डॉक्टर को फोन किया, तो पता लगा कि मरीज एक हफ्ते के लिए मछली मारने गए हैं। यहां (नॉर्वे में) और कई देशों में आपका लेखा-जोखा फैमिली डॉक्टर ही रखते हैं। भारत में भी यही कॉन्सेप्ट था। छोटे शहरों में अब भी है। जहां अमेरिका और यूरोप में यह सिस्टम दशकों से सफल रहा, भारत में ओपिनियन लेने की बीमारी और डॉक्टरों की आपसी प्रतियोगिता ने इसे खत्म कर दिया। कोई किसी पर भरोसा ही नहीं करता। दरभंगा से पटना, दिल्ली और पता नहीं कहां-कहां? बीमारियों का न पक्का रिकॉर्ड, न सिक्वेंस। यहां मरीज के जन्म से लेकर अब तक की हर बीमारी, हर दवाई, हर ऑपरेशन की जानकारी मिल जाती है। मोबाइल पर एप भी आ गया है, जिसमें संक्षिप्त विवरण होता है। सेकंड ओपिनियन मरीज नहीं, डॉक्टर लेते हैं, और खूब लेते हैं। मैं भी लेता हूं, मरीज को कह के लेता हूं कि मुझे इसकी जानकारी कम है। मरीज का मुझसे विश्वास टूटता नहीं, बढ़ता है। यहां से बेहतर डॉक्टर भारत में हैं। पर यहां भरोसा रखते हैं, वहां कम रखते हैं। इधर से डोर टूटी, उधर से भी टूट रही है। अब डॉक्टर भी मरीज पर कम भरोसा करते हैं। क्या पता भाग जाए? सेकंड-ओपिनियन कम लेते हैं। आपसे नहीं कहते कि उन्हें इलाज नहीं पता। इस डर से कि भरोसा उठ जाएगा। अब बिन भरोसे तो सब राम भरोसे।

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