यह वही जौनपुर है
जौनपुर को शहर कहना, सभ्यता को नकारना है। यह देखने में शहर लगता है, क्योंकि यहां कलक्टर बैठते हैं, कप्तान की हुकूमत का आगाज यहीं से होता है, वरना जौनपुर एक संभ्रांत, सुशिक्षित और सचेत गांव है। किसी...
जौनपुर को शहर कहना, सभ्यता को नकारना है। यह देखने में शहर लगता है, क्योंकि यहां कलक्टर बैठते हैं, कप्तान की हुकूमत का आगाज यहीं से होता है, वरना जौनपुर एक संभ्रांत, सुशिक्षित और सचेत गांव है। किसी जमाने में तालीम और कला का केंद्र रहा। राग जौनपुरी इसी शहर से उठता है, जौनपुर स्कूल ऑफ आर्ट इतिहास में तो है, पर जौनपुर से गायब है। अलख बिलायती का करते हैं, किसी को नहीं मालूम, पर उनके कई अड्डे हैं और अपने ‘टैम’ पर वह वहां दिखेंगे जरूर। अल सुबह पकड़ी तले सीताराम चाय की दुकान पर कोयले की भट्ठी सुलगाते दिखेंगे। गोकि ओलांदगंज है, वह तिराहा भी है, जहां किसी जमाने में पाकड़ का पेड़ हुआ करता था। एक चबूतरा था, जिस पर जमाने के दिलदार बाबू राजदेव सिंह बैठकर चाय पीते और सियासत पर बात करते थे। कोई रिक्शे वाला, खोमचे वाला बीड़ी जलाकर बाबू साहब को देता और मजमा बढ़ता जाता। इन्हीं राजदेव सिंह को देखकर दीन दयाल उपाध्याय ने, जो 1963 में जौनपुर से चुनाव लड़ने आए थे, पूछा था- ‘यह कौन बीड़ी पी रहा है, जिसे इतने लोग घेरे खड़े हैं?’ ‘यही हैं राजदेव सिंह, जो कांग्रेस की ओर से आपके खिलाफ मैदान में हैं। दीन दयाल ने उसी समय बोल दिया था, हम इसे नहीं हरा सकते, और राजदेव सिंह ने सचमुच दीया बुझा दिया था।