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दिवाली पर प्रदूषण

दिवाली पर प्रदूषण सुप्रीम कोर्ट का दिल्ली-एनसीआर में पटाखों की बिक्री पर रोक का फैसला कितना सही था, यह हाल के आंकड़ों को देखकर पता लग जाता है। अब दिल्ली में प्रदूषण बहुत खराब और खतरनाक श्रेणी में...

दिवाली पर प्रदूषण
हिन्दुस्तानWed, 18 Oct 2017 10:04 PM
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दिवाली पर प्रदूषण
सुप्रीम कोर्ट का दिल्ली-एनसीआर में पटाखों की बिक्री पर रोक का फैसला कितना सही था, यह हाल के आंकड़ों को देखकर पता लग जाता है। अब दिल्ली में प्रदूषण बहुत खराब और खतरनाक श्रेणी में पहुंच गया है, जो सेहत के लिए काफी नुकसानदेह है। ऐसे में, दिवाली पर पैदा होने वाला पटाखों का धुआं हालात को और खराब करता। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर जैसी मिली-जुली प्रतिक्रिया आई थी, उसे देखकर यह शायद ही भरोसा होता है कि दीपावली की रात पटाखों का शोर और धुआं पूरी तरह बंद होगा। मगर यह उम्मीद तो है ही कि संजीदा लोग ऐसा करने से बचेंगे और हो सकता है कि इस साल प्रदूषण अन्य वर्षों की अपेक्षा कम हो। वैसे देखा जाए, तो हमारे लिए फायदेमंद यही है कि हम दीपावली दीयों के साथ मनाएं और पटाखों से पूरी तरह दूरी बरतें।
    महिमा सिंह, लक्ष्मी नगर, नई दिल्ली

बढ़े किराये की मार
दिल्ली मेट्रो के बढ़े हुए किराये का सबसे ज्यादा असर उन छात्र-छात्राओं पर हुआ है, जो मेट्रो में सफर करते हैं और पढ़ाई-लिखाई के सिलसिले में कभी स्कूल-कॉलेज, तो कभी ट्यूशन जाते हैं। अब उन्हें अधिक पैसे खर्च करने पड़ रहे हैं। हालांकि इसका असर सिर्फ छात्र-छात्राओं तक सीमित नहीं है, बल्कि इसे उनके माता-पिता भी झेल रहे हैं। एक तो उन्हें अपने बच्चों को बढ़ा किराया देना पड़ रहा है, जबकि उनकी आमदनी जस की तस है। आखिर कहां है वह सरकार, जो छात्रों को मुफ्त पास बनवाने की बात कह रही थी? केंद्र और दिल्ली सरकार की बीच मतभेद का खामियाजा आम जनता को भुगतना पड़ रहा है।
    मोहम्मद अली
    दिल्ली स्कूल ऑफ जर्नलिज्म

दीयों की दीपावली
एक जमाना था, जब दीपावली का मतलब होता था दीया। इस दिन पूरे घर को हम दीयों से सजाते थे। रंगोली बनाई जाती थी। मगर बदलते वक्त के साथ दीये मानो खत्म हो गए हैं। अब दीपावली को बिजली की लाइटें लगा दी जाती हैं। शहरों-महानगरों की बातें छोड़िए, गांवों में भी छोटे-छोटे बल्बों से घर सजे दिखने लगे हैं। जबकि बिजली की झालरों से हमें कई तरह का नुकसान होता है। यह सही है कि इन लाइटों में चमक ज्यादा रहती है, पर दीयों के जलने से आसपास के कीड़े खत्म होते थे। मौसम के लिहाज से इस वक्त छोटे-छोटे कीड़े काफी पनपते हैं, जो दीये की रोशनी में दम तोड़ देते थे। यह हमारे स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होता था। इतना ही नहीं, दीयों के इस्तेमाल से कुम्हारों की आजीविका बनी रहती थी। उन्हें काम मिला करता था। इससे दीपावली सही अर्थों में सबके घरों में रोशनी का त्योहार बन जाती थी। लेकिन नए दौर में अब ये सब बेमानी हो गए हैं।
    रवींद्र चौधरी
    न्याय खंड-3, इंदिरापुरम

बदलाव की जरूरत
देश में भले ही कन्या भ्रूण हत्या को रोकने व कन्या शिक्षा के लिए प्रधानमंत्री ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान जोर-शोर से चला रहे हों, लेकिन बिटिया को मार देने की घटना अब भी हमारे समाज की सच्चाई बनी हुई है। ताजा मामला इसलिए और अधिक चौंकाता है, क्योंकि एक दादी ने अपनी नवजात पोती की हत्या गला दबाकर कर दी है। यह दुखद है कि आज भी दूरदराज के इलाकों में स्थिति जस की तस बनी हुई है। वहां कन्याओं को अब भी बोझ समझकर या तो कोख में मार दिया जाता है या फिर पैदा होते ही। आखिर क्या कारण है कि आजादी के सात दशक के बाद भी हमारे देश के लोगों की सोच नहीं सुधर रही है? यह सही है कि जागरूकता अभियानों के कारण शहरों में लड़कियां अब पहले की तुलना में अधिक आत्मनिर्भर, शिक्षित व स्वावलंबी बनने लगी हैं, लेकिन दूर-दराज व ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति में व्यापक बदलाव की जरूरत अब भी है। ऐसे संकीर्ण लोगों की मानसिकता को बदलने के लिए सरकार को ठोस जमीनी प्रयास करने होंगे।
    अनुपमा अग्रवाल, अलीगढ़


 

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