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बाढ़ का हल

बाढ़ का हल हर साल की तरह इस बार भी देश के कई हिस्से बाढ़ की चपेट में हैं। बाढ़ और महानगरों में जलभराव की समस्या से जन-जीवन पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो गया है। देखा जाए, तो हर साल बाढ़ से तबाह होना लोगों की...

बाढ़ का हल
लाइव हिन्दुस्तान टीम,नई दिल्लीTue, 22 Aug 2017 10:45 PM
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बाढ़ का हल
हर साल की तरह इस बार भी देश के कई हिस्से बाढ़ की चपेट में हैं। बाढ़ और महानगरों में जलभराव की समस्या से जन-जीवन पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो गया है। देखा जाए, तो हर साल बाढ़ से तबाह होना लोगों की नियति बन गई है, लेकिन शासन- प्रशासन के स्तर पर राहत व बचाव कार्य तब किया जाता है, जब बाढ़ बिल्कुल सामने आ जाती है। बाढ़ का स्थायी हल न ढूंढ़ा जाना ही इससे तबाही का मूल कारण है। बाढ़ की विभीषिका में लोगों को अपनी रोजी-रोटी के साथ ही जान भी गंवानी पड़ती है। मगर जन-प्रतिनिधि बाढ़ पीडितों को सिर्फ वादों का झुनझुना पकड़ा देते हैं। अगर पहले से सजगता दिखाई जाए और प्रशासन अपने दायित्वों का ईमानदारी से निर्वहन करे, तो निश्चय ही बाढ़ से होने वाले नुकसान को काफी कम किया जा सकता है।
    पूजा पाण्डेय, बस्ती

दोषी को मिले दंड
देश में चाहे कहीं भी कोई दुर्घटना हो, सीधे-सीधे राजनेताओं के मत्थे दोष मढ़कर उनसे इस्तीफे की मांग की जाती है। लोकतंत्र का यह एक दुखद पहलू है। यहां हर घटना दुर्घटना को राजनीतिक चश्मे से देखा जाता है। चाहे गोरखपुर में चिकित्सकों की लापरवाही से बच्चों की मौत का मामला हो अथवा खतौली में रेलकर्मियों द्वारा सुरक्षा मानकों का इस्तेमाल न किए जाने से हुआ रेल हादसा। कर्तव्य के प्रति उदासीनता के चलते इन दोनों घटनाओं में मासूम लोगों को अपने प्राण गंवाने पडे़। क्या यह जरूरी नहीं है कि दोनों घटनाओं को जघन्य अपराध मानते हुए दोषियों को अविलंब कड़ी से कड़ी सजा दी जाए? लापरवाह अधिकारियों और कर्मचारियों को कड़ा सबक मिलना जरूरी है, न कि नेताओं को। 
    सुधाकर आशावादी, ब्रह्मपुरी, मेरठ
    
यह शुरुआत है
आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने 3-2 के बहुमत से मुस्लिम महिलाओं के अत्याचार का सबब बनी तीन तलाक की प्रथा को असांविधानिक मानते हुए खत्म कर दिया है। बेहतर होता, यदि यह फैसला सर्वसम्मति से होता। बहरहाल, यह एक ऐतिहासिक फैसला है, बहुत कुछ सती प्रथा और देवदासी प्रथा को कानूनन प्रतिबंधित करने की तर्ज पर। तीन तलाक की प्रथा वर्षों से मुस्लिम महिलाओं के शोषण का बड़ा हथियार रही है। कई ऐसे मामले सामने आए हैं, जिनमें कभी बेटी को जन्म देने के कारण, तो कभी यूं ही गुस्से में तीन तलाक दे दिए जाते हैं। पत्र आदि भेजकर भी तलाक दे दिया जाता है। एक झटके में तीन तलाक कहने के कारण मुस्लिम औरतों का जीवन संकट में पड़ जाता है। उन्हें गंभीर सामाजिक,आर्थिक और मानसिक तकलीफ का सामना करना पड़ता है। इसीलिए कहा जा सकता है कि इस फैसले से करोड़ों मुस्लिम महिलाओं को न्याय मिलने की एक शुरुआत हुई है। हालांकि उनकी लड़ाई तब तक अधूरी रहेगी, जब तक स्वयं मुस्लिम समाज, विशेषकर पुरुष समाज में व्यापक जन जागरुकता नहीं आएगी।
    चंदन कुमार, देवघर

हादसे का सबक
पिछले पांच वर्षों में देश के भीतर सैकड़ों छोटे-बड़े रेल हादसे हुए हैं, जिसकी वजह आपराधिक लापरवाही रही है। रेल कर्मचारियों की लापरवाही की वजह से कई रेल यात्रियों ने अपनी जान गंवाई है। मुजफ्फरनगर के पास खतौली ट्रेन हादसा भी इसका अपवाद नहीं है। हालांकि इसमें अब कुछ कर्मचारियों पर गाज गिरी है, जिसमें रेलवे बोर्ड के एक सदस्य भी शामिल हैं। मगर सवाल यह है कि ऐसे हादसे आखिर कब तक होते रहेंगे? यह स्थिति देखकर प्रधानमंत्री का हाईस्पीड बुलेट ट्रेन चलाने का ख्वाब गले नहीं उतरता है। बेहतर होगा कि सरकार नए वादे करने से पहले ढांचागत व्यवस्था को मजबूत बनाए और सुरक्षा मानकों पर पूरा ध्यान दे। पिछली तमाम रेल दुर्घटनाओं को ध्यान में रखते हुए सरकार को ऐसे ठोस कदम उठाने चाहिए कि आने वाले समय में यात्री ऐसे भयावह हादसों के शिकार न बनें।
    बृजपाल सिंह, देहरादून, उत्तराखंड

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