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भारत छोड़ो की प्रासंगिकता

देश आजादी मांग रहा है, आज नई परिभाषा में/ मूल्य वही हों, जो लक्षित थे ‘भारत छोड़ो’ गाथा में। वर्ष 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के मूल्य आज भी प्रासंगिक हैं, क्योंकि आतंकवाद, सामाजिक...

भारत छोड़ो की प्रासंगिकता
हिन्दुस्तान Fri, 11 Aug 2017 10:11 PM
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देश आजादी मांग रहा है, आज नई परिभाषा में/ मूल्य वही हों, जो लक्षित थे ‘भारत छोड़ो’ गाथा में। वर्ष 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के मूल्य आज भी प्रासंगिक हैं, क्योंकि आतंकवाद, सामाजिक गैर-बराबरी,बुजुर्गों के प्रति दुर्व्यवहार, बलात्कार, झपटमारी और पड़ोसी देशों से सीमा-विवाद जैसी अनगिनत समस्याओं से भारत आज भी जूझ रहा है। सिर्फ वंदे मातरम कह देने और दूसरों से जबरन कहलवा लेने भर देने से, या लाल चौक पर जाकर तिरंगा लहरा देने व सिनेमाघरों में जन-गण चलवा देने भर से हम सच्चे भारतीय नहीं हो जाते और न इतने भर से हमारा देश सारे जहां से अच्छा बन जाएगा। हम सबको अपने हर स्वार्थ से पहले देश को रखना होगा। समय की मांग है कि हम अपने राष्ट्रीय प्रतीकों को ईमानदारी से जीएं। भारत छोड़ो आंदोलन में गांधीजी द्वारा दिए गए नारे की ही तरह वर्तमान में या तो ऐसा करना होगा या मरना होगा। 
तरुण भसीन, दिल्ली 

मिट्टी पलीद कराते नेता
राजनीति अब मर्यादा की चीज नहीं रही। अब आप रंगे हाथ अपहरण या बलात्कार करते हुए पकड़े जाएं, फिर भी रसूख के बल पर छूट जाएंगे। करोड़ों-अरबों की संपत्ति लूटकर हवाला में लगा दें या स्विस बैंक में जमा कर दें, फिर भी सीना तानकर सत्ता के शीर्ष पर विराजमान हो सकते हैं। गरीब-अनपढ़ जनता को लालटेन का प्रकाश दिखाकर उनके मसीहा बने रह सकते हैं। यह सब उसी प्रकार है, जैसे सौ-सौ चूहे खाकर बिल्ली हज करने जाती है। तमाम शोर-शराबे के बीच कोई महानुभाव फरमा रहे हैं कि रात-बिरात लड़कियां-महिलाएं बाहर न निकलें। क्या आला बात कही हुजूर आपने? यही है आपका सुशासन? आपकी स्वच्छ और लीक से हटकर अच्छे दिनों की राजनीति? विश्वास मानिए, यही हाल रहा, तो अगले चुनाव में आपका भी पत्ता साफ हो जाएगा। यह धरा विकल्पों से भरी हुई है। एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय दल अपने सदस्यों को अपने साथ नहीं रख पा रहा है। उसके घर में भयंकर फूट है। अफरा-तफरी मची हुई है। गांधी, नेहरू और पटेल, सभी अपना सिर धुन रहे होंगे कि क्या इन्हीं दिनों के लिए हमने यह पार्टी खड़ी की थी?
श्रीधर द्विवेदी 

रवैया बदले भाजपा
राष्ट्रवाद और हिंदुत्व पर आधारित भाजपा को बड़े लंबे समय के बाद सत्ता मिली है, जो एक अच्छी बात है। इस सरकार के ढेर सारे अच्छे कार्यक्रमों से इस पार्टी के और अधिक आगे बढ़ने की अब भी पूरी आशा है, मगर गोवा, मणिपुर और बिहार जैसे राज्यों में उठाए गए इसके कदमों ने सत्ता के लिए इसके उतावलेपन और इसकी कमजोरी को उजागर किया है। अभी गुजरात में राज्यसभा चुनाव के दौरान की घटनाओं से भी कोई अच्छा संदेश नहीं गया है। चंडीगढ़ में वर्णिका कुंडू की ताजा घटना और उससे पूर्व की जोड़-तोड़ की घटनाओं से इसे ठोस सबक लेने की जरूरत है, तभी यह पार्टी अपनी छवि और साख बचा पाएगी। आज की जनता काफी जागरूक है, वह बेरोजगारी, जनसंख्या विस्फोट और अपराध-हिंसा जैसी समस्याओं से जल्दी से जल्दी मुक्ति पाना चाहती है। सरकार के पास आज दाम और काम की भी कोई कमी नहीं है। कमी है, तो सिर्फ नीति और नीयत की। यदि भाजपा का रवैया भी अन्य पार्टियों की तरह रहा, तो फिर इसके लिए भी बड़ा सियासी संकट तैयार है। 
वेद मामूरपुर, नरेला 

छवि को लगा बट्टा
बिहार के मुख्यमंत्री ने जिस तरह से पाला बदलकर सरकार बनाई, उससे उनकी छवि को जोरदार झटका लगा है। नीतीश कुमार अब प्रधानमंत्री पद की रेस से तो बाहर हो ही गए हैं, बिहार के अगले मुख्यमंत्री की उनकी संभावनाओं को भी नुकसान पहुंचा है। जिस छवि की बदौलत वह राज्य के नौजवानों में लोकप्रिय हुए, अब वही दरक गई है। युवा वर्ग उन्हें सिर्फ सत्ता लोभी मानने लगा है। इस पूरे प्रकरण में उन्हें घाटा ही घाटा हुआ है।
धीरज सिंह राजपूत
ब्रह्मपुरा, मुजफ्फरपुर-03 

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