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वीडियो: जानें उत्तराखंड के प्रमुख देवी मंदिरों के बारें में

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लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 29 Mar 2017 01:54 PM

बागेश्वर में अपार श्रद्धा का केंद्र है चंडिका मंदिर

अपार श्रद्धा केंद्र चंडिका मंदिर की स्थापना 400 साल पहले हुई। चंद वंशीय राजा ज्ञान चंद्र ने 1698 और 1708 में चंडिका मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की। चंपावत से चंडिका मां को लाया गया।  चौरासी के गोलू देव और मां चंडिका की स्थापना भिलेश्वर पर्वत पर की गई। मंदिर के पूजारी सिमलटी गांव के पांडे परिवार नियुक्त किए गए। यह परिवार अब चौरासी गांव में रहता है। प्रचलित बलि प्रथा के पूजारी खोली के परिहार और कठायत परिवार नियुक्त किए गए। लेकिन अब बलिप्रथा के स्थान पर हरसाल श्रीमद भागवत कथा होती है। मंदिर का जीर्णोद्वार स्व. चंद्रलाल साह ने किया। मंदिर में भोग और भंडारा की व्यवस्था मुनस्यारी, जोहार के पांगती लोग करते थे। चैत्र आश्विन नवरात में पूजा-अर्चना होती है। मंदिर समिति वर्तमान में व्यवस्था संभाल रही है। 

मंदिर के पूजारी गिरीश चंद्र पांडे ने बताया कि 29 मार्च से मंदिर में श्रीमद देवी भागवत पुराण का आयोजन किया जा रहा है। व्यास स्परूप गोकुलानंद जोशी और वृद्रावन से भजन-कीर्तन को पार्टी बुलाई गई है। चंद वंशीय राजाओं ने 400 साल पहले चंडिका मंदिर की स्थापना की। तब महामारी फैल थी। घरेलू इलाज से भी कुछ नहीं हो रहा था। मूर्ति स्थापना के बाद बीमारी खत्म हुई। रोग और के प्रकोप से लोगों को मुक्ति मिली। मां के आने के बाद त वर्तमान में मूर्ति और मंदिर का निर्माण जारी है। 

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भक्तों की मनोकामना पूरी करती हैं गंगोलीहाट की मां कालिका

सीमांत जनपद के गंगोलीहाट में माँ काली भक्तों की आस्था का केन्द्र है। मंदिर में साल भर भक्तों की भीड़ लगी रहती है। चैत्र नवरात्रि में मंदिर में पूजा अचर्ना के लिए देश से ही नहीं बड़ी संख्या में विदेशों से भी मां काली के भक्त पहुंचते हैं। घने देवदार के वनों के बीच स्थित माँ काली का मंदिर बेहद प्राचीन हैं। यहां चैत्र  माह की नवरात्रि अष्टमी के दिन हाटकालिका मंदिर में मेला होता है।

आदि जगतगुरू शंकराचार्य ने की थी स्थापना
महाकाली मंदिर की स्थापना आठवीं शदी में जगत गुरू  शंकराचार्य ने की थी। माना जाता है कि यहां मां काली नरबलि लेती थी, मां के उग्र श्वरूप को शांत कर मंदिर में माँ की शक्ति को किलित किया।तब से मंदिर में पशुबलि का विधान है।

भारतीय सेना कुमांऊ रेजीमेंट की अराध्य देवी हैं मां देवी
भारतीय सेना कुमांऊ रेजीमेंट हाटकालिका मां को अपनी अराध्य देवी मानती है। भारतीय सेना की तरफ से मंदिर में हर साल नवरात्रि में विशेष पूजा अर्चना की जाती है।                        

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देवी सती से जुड़ी है नैनीताल की मां नयना देवी

नैनीताल की झील का उल्लेख पुराणों में वर्णित है। इसको त्री ऋषि सरोवर का नाम दिया गया है। कहते हैं कि महान ऋषि अत्रि, पुलस्त्य व पुलह ने मानसरोवर जाते समय यहां तपस्या की थी। उनके तपोबल से ही यहां जल की उत्पत्ति हुई। इस सरोवर के जल को भी मानसरोवर झील के जल जैसी मान्यता दी गई। इधर देवी सती से भी मां नयना का जुड़ाव है। कहा जाता है कि सती के पिता राजा दक्ष प्रजापति ने यज्ञ के आयोजन में अपने दामाद शिव को आमंत्रित नहीं किया। इससे खिन्न हो कर सती ने पिता की यज्ञशाला में प्राण त्याग दिए। इस घटना ने शिव को विचलित कर दिया। बेसुध होकर वे सती के मृत देह को लेकर घूमने लगे। भगवान बिष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के देह के टुकड़े कर शिव को इससे मुक्ति दिलाई। सती की बांयी आंख यहां गिरी। इससे नैनीझील का उद्भव हुआ। नयना देवी मंदिर 51 शक्तिपीठों में एक है।

मंदिर समूह नेपाल व भारत की मिली जुली स्थापत्यकला का उदाहरण है। इसकी पुर्नस्थापना 1883 में की गई। इसमें नैनीताल के प्रमुख कारोबारी मोतीराम साह के परिवार की अहम भूमिका रही है। वर्तमान में श्री मां नयना देवी अमर उदय ट्रस्ट इसकी व्यवस्था देखता है। मंदिर के प्रधान पुजारी पं बसंत बल्लभ जोशी बताते हैं कि नवरात्रि के साथ यहां साल भर स्थानीय लोगों के साथ ही यहां पर्यटकों का आवागमन लगा रहता है। मंदिर समूह में मां के अलावा हनुमान, भैरव, नव ग्रह, राधा कृष्ण व शिव के मंदिर भी हैं।  

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विश्व कल्याण के लिए होता है मां वाराही का पूजन

चम्पावत जनपद में विकास खंड पाटी के 7200 फीट की उचांई में स्थित मां वाराही धाम में नवरात्रि के पर्व पर उत्तरभारत के अलावा कुमाऊं भर से श्रद्धालु पूजा अर्चना करने आते हैं। नवरात्रि पर मां के इस पावन धाम में पूजन का विशेष महत्व माना जाता है। लोग मां के दर्शन को दूर-दराज से यहां पहुंचते हैं।

नैनीताल, अल्मोडा़ जनपद की सीमा को जोड़ने वाले इस मां वाराही धाम में के बारे में संस्कृत महावद्यिालय के प्राचार्य भुवन चन्द्र जोशी, आचार्य कीर्ति बल्लभ जोशी ने बताया कि कि भगवान बराह देवी की पत्नी मां वाराही देवी को पृथ्वी का स्वरूप माना जाता है।  वश्वि का कल्याण करने वाली देवी के रूप में पूजा जाता है। मां दुर्गा के नौ रूपों में मां वाराही के धाम देवीधूरा में पुजारी वष्णिु दत्त की देखरेख में नवरात्रि पर्व पर चार खाम सात तोक के द्योक अर्थात रणबाकुंरे विधि विधान से पूजा अर्चना करते हैं। महाअष्टमी को कम से कम 101 दिए जलाकर मध्यरात्रि को मां वाराही देवी को दूध, चावल आदि का भोग लगाते हैं। प्राचार्य भुवन जोशी ने बताया कि महारात्रि पर मां वाराही धाम में उत्तर भारत समेत आसपास के श्रद्धालु पूजा अर्चना करने आते हैं। 

कब से यहां की मान्यता 
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार पूर्व में चम्याल खाम, लमगड़िया खाम, गहड़वाल खाम एवं वालिक खाम के लोग प्रतिवर्ष नर बलि दिए जाने की प्रथा थी। कहते हैं कि चम्याल खाम की एक मात्र वृद्धा के पौत्र की बारी आने पर उसने मां वाराही की उपासना की। वृद्धा की तपस्या से प्रसन्न होकर मां वाराही ने विकल्प खोजने के लिए कहा। चारों खामों की सहमति से एक व्यक्ति के बराबर रक्त बहाकर मां की पूजा करने का हल बताया। तब से यहां पर मां बाराही धाम की स्थापना की गई। यहां पर प्रतिवर्ष रक्षा बंधन पर्व पर चार खाम सात तोक के द्योक बग्वाल की परंपरा को बनाए रखे हैं। नवरात्रि पर हजारों श्रद्धालु मां वाराही धाम पर पूजा अर्चना करने आते हैं।  

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 श्रद्धा का प्रतीक है मां पूर्णागिरि धाम

शक्ति के सौभ्य रूप मां पूर्णागिरि धाम में शारदीय और चैत्र माह की नवरात्रियों सहित वर्ष भर 50 लाख से ज्यादा श्रद्धालु देश के विभिन्न भागों से दर्शनों के लिए आते है। यह धाम कनखल हरिद्वार में सम्पन्न दक्ष प्रजापति के याज्ञिक विध्वंस के बाद सती के शव को लेकर घूमते हुए शिव के मोह की शांति के लिए सुदर्शन चक्र से शव के भिन्न-भिन्न अंगों को 51 स्थलों में गिरा दिये जाने की कथा से जुड़ा है। यहां सती की नाभि अंग गिरा, इसलिए मां पूर्णागिरि की नाभि स्थल के रूप में मान्यता है। 

कुमाऊं के राजा ज्ञान चंद, कल्याण चंद एवं जगत चंद के तामपत्रों से पता चलता हैं कि यहां कैलास के तीर्थ यात्रियों के लिए पूर्णागिरि में भोग की व्यवस्था थी। राजा ज्ञान चंद के दरबार में गुजरात से पहुंचे चंद्र तिवारी के इस देवी स्थल की महिमा स्वप्न में देखने पर उन्होंने यहां मूर्ति स्थापित कर इसे संस्थागत रूप दिया था। तभी से यहां पर पूजा अर्चना का कार्य तिवारी तथा उनके भान्जों, बल्हेडिया उर्फ पांडेय करते रहे हैं। 1929 में तल्लादेश क्षेत्र के आदमखोर बाघ के आतंक से निजात दिलाने के लिए यहां आए जिम कार्बेट ने जब विशिष्ट अवसरों पर देवी के कृपा पात्र लोगों को दिखलाई पड़ने वाली अदृष्य व अवलोकिक ज्योति किरणों को देखने के सौभाग्य मिलने की बात अपनी कृति टेम्पल टाईगर में की तो इसकी ख्याति दूर-दूर तक फैली। माना जाता है सच्चे मन से मां की उपासना करने पर मां मनोकामनाएं जरूर पूरी करती हैं। लेकिन जिला पंचायत और प्रशासन द्वारा आयोजित तीन माह के अधिकारिक मेले में मिलने वाली सुविधाएं शेष समय स्थानीय लोगों व पुजारियों पर निर्भर रहती हैं। सुविधाएं वर्ष भर लोगों को मिले इसके लिए लोग पूर्णागिरि को वैष्णों देवी की तर्ज पर विकसित करने या ट्रस्ट का रूप देने की मांग समय-समय पर करते रहे हैं। पिछले वर्ष रोपवे के कार्य तथा ठुलीगाड़ व बूम क्षेत्र से रिवर राफ्टिंग जैसी साहसिक यात्रा शुरू होने से इस धाम के आस्था के साथ ही धार्मिक पर्यटन, तीर्थाटन सहित क्षेत्र के विकास के रूप में विकसित होने की संभानाएं बढ़ गई हैं।

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बारह ज्योर्तिलिंगों में से एक है जागेश्वर धाम

जागेश्वर को पुराणों में ‘हाटकेश्वर’ और ‘भू-राजस्व लेखा’ में पट्टी पारूण के नाम से जाना जाता है। पतित पावन जटागंगा के तट पर समुद्रतल से लगभग पांच हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित पवित्र जागेश्वर की नैसर्गिक सुंदरता अतुलनीय है। कुदरत ने इस स्थल पर अपने अनमोल खजाने से खूबसूरती जी भर कर लुटाई है। लोक विश्वास और लिंग पुराण के अनुसार जागेश्वर संसार के पालनहार भगवान शिव के स्थापित बारह ज्योर्तिलिंगों में से एक है।

जागेश्वर धाम के प्राचीन मंदिर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर इस क्षेत्र को सदियों से आध्यात्मिक जीवंतता प्रदान कर रहे हैं। उत्तर भारत में गुप्त साम्राज्य के दौरान हिमालय की पहाड़ियों के कुमाऊं क्षेत्र में कत्यूरीराजा थे। जागेश्वर मंदिरों का निर्माण भी उसी काल में हुआ। इसी कारण मंदिरों में गुप्त साम्राज्य की झलक भी दिखलाई पड़ती है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अनुसार इन मंदिरों के निर्माण की अवधि को तीन कालों में बांटा गया है। कत्यूरीकाल, उत्तर कत्यूरीकाल एवं चंद्र काल। बर्फानी आंचल पर बसे हुए कुमाऊं के इन साहसी राजाओं ने अपनी अनूठी कृतियों से देवदार के घने जंगल के मध्य बसे जागेश्वर में ही नहीं वरन् पूरे अल्मोड़ा जिले में चार सौ से अधिक मंदिरों का निर्माण किया जिसमें से जागेश्वर में ही लगभग 150 छोटे-बडे मंदिर हैं। मंदिरों का निर्माण लकड़ी तथा सीमेंट की जगह पत्थर की बड़ी-बड़ी स्लैबों से किया गया है। दरवाजों की चौखटें देवी देवताओं की प्रतिमाओं से अलंकृत हैं। मंदिरों के निर्माण में तांबे की चादरों और देवदार की लकडी का भी प्रयोग किया गया है।

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